लॉकडाउन में सिगरेट, शराब और पानमसाला के नशेबाजों पर एक व्यंग. (A satire on smokers and drinkers during lockdown)
नमस्ते! सिगरेट, शराब, पान-मसाला खाने वालों की ज़मात में अक्सर यह नसीहत आम सुनाई देती है कि, आप इक्कीस दिन किसी बुरी आदत से तौबा कीजिये, बाईसवें दिन से आप उस आदत से निजात पा चुके होंगे| सुना तो लगभग सभी ने होता है पर इतना टाइम है किसके पास? एक दो दिन बिना रोटी के तो रह सकते है पर मज़ाल है जो नशे पत्ती का जुगाड़ भूल जायें|
आज नशेबाजों का पक्ष इतनी मजबूती से रख पाने का राज़ यह है कि, हम स्वयं उस दौर से गुज़ार चुके हैं| आदत भी ऐसी की आँख खुलने से पहले तकिया के नीचे टटोल लिया करते थे…अगर सिगरेट है तो ठीक, वर्ना एक दो का तो दिन ख़राब होना ही था| पता ही नहीं था की हम सिगरेट को पी रहे है या सिगरेट हमें| शादी से पहले तक तो बचे हुए टोटों से तंबाखू इकठ्ठा कर आधी सिगरेट जितना जुगाड़ कर लिया करते थे, अब आधी रात कहाँ जाएँ सिगरेट ढूँढने, आलस भी किसी नशे से कम थोड़े ही होता है| शादी हुई तो ऐश-ट्रे से अधजली सिगरेट बटोरने की, और बच्चे के बाद पूरी सिगरेट की आदत छूट ही गयी| खैर मेरी कहानी फिर कभी, आज इतनी बड़ी भूमिका बांधने का उद्देश्य इक्कीस दिन वाली नसीहत पर गौर करना है| तो चलिए शुरू करते हैं…….
कभी google कर के देखिएगा, यह इक्कीस दिन वाली नसीहत कोई आज की नहीं है, वर्षों से छपे हज़ारों शोध मिल जाएंगे| सिगरेट, शराब पर तो बाकायदा किताबें भी छपी हैं| चलिए मान लेते है ये किताबें तथ्यों पर आधारित होंगी, लेकिन इतनी कभी न परखी गयी होंगी जितनी अपने देश में हुए पहले लॉकडाउन में…..जी हाँ, शायद आपने ध्यान न दिया हो पर अपना पहला देशव्यापी लॉकडाउन इक्कीस दिन का ही था, यकीन न हो तो google कर लीजिए| देख लिया….तो आइये अब कड़ियों को कड़ियों से मिलाते है, और देखते है क्या वाकई ये विदेशी शोध हमारे देशी नशेबाजों की कसौटी पर खरे उतरे हैं या नहीं|

सबसे पहले बात शराब पीने वालों की, जानकारी के लिए बता दूँ, इनमे भी कई किस्में होती है, पर मोटे तौर पर दो| एक, जो कभी –कभी समाज़ के दबाव में शराब का मज़ा चखते हैं, और दूसरे वो जो शराब के दबाव में समाज़ को मज़ा चखाते हैं| पहली किस्म तो गऊ समान होती है, मिले तो ठीक न मिले तो ठीक, असल तकलीफ दूसरी किस्म वालों की है| कभी मौका मिले तो पड़ताल कीजियेगा, इनके पास आपको एक अलग ही प्लानर मिलेगा| हर उस महापुरुष की जयंती, हर वो त्यौहार, हर वो आने वाले चुनाव की तारीखें उसमे खासी मौजूद मिलेगी जिस दिन ड्राई–डे होता है, अब एडवांस प्लानिंग न करें तो बेचारे प्यासे मर जाएँ| पर लॉकडाउन अलग था, मामला इतना गंभीर हो जायेगा शायद ही किसी ने सोचा होगा, जब तक गंभीरता समझ आती तब तक तो शटरों पर ताले लग चुके थे| जिनके पास थोड़ा बहुत स्टॉक था वो दो तीन दिन ही चला पाए, फिर दोस्तों, रिश्तेदारों, पड़ोसियों, पड़ोसियों के रिश्तदारों तक टोह ले डाली, पर कोई कितना ही स्टॉक रखता है घर पर| जो रखता भी है वो भला क्यों दानवीर होने लगा, आखिर जीने मरने का सवाल तो उसका भी होगा|
चलिए मान भी लें कि जुगाड़ हो भी गया, तो साहब आधी बोतल और चार दोस्त, चारों ने कसम दे रखी होगी कि “बिना मेरे पहुंचे शुरू न करना”| अब घरवालों से, मोहल्ले वालों से, पुलिसवालों से बच बचा कर दोस्तों तक पहुंचना मज़ाक था क्या| पर इतने साल शराब पीने से पहले जो ऊपर वाले को चढ़ावा चढ़ाया था, उन्होंने सुन ही ली थी| आशीर्वाद में एक बात घर घर प्रचारित करा दी कि अल्कोहल का इस्तेमाल सेनिटाईज़र में होता है| अल्कोहल तो शराब में भी होता है, यानी अन्दर बाहर दोनों तरफ से सेनिटाईज़, अब शराबियों को समीकरण बैठाने में देर लगती है क्या? अब तो घरवाले पूछ लें कहाँ हो तो ज़वाब मिलेंगा सेनिटाईज़ हो रहे हैं, थोड़ी देर में आते हैं|
खैर इतने वर्षों की पूजा थी तो ऊपर वाले ज्यादा ही मेहरबान थे, शराबियों का दर्द देखा न गया और राज्य सरकारों को घुटनों पर ला हि दिया, झक मार कर ठेके खोलने का ऐलान करना पड़ा| जो लाइनें डीमोनाटाईजेशन में कम न हुईं वो भला करोना से डर कर काम होने वाली थी क्या? ऊपर से धौस ऐसी की अल्कोहल ही तो खरीद रहे है, एक-आदी वायरस आ भी गया तो अपने आप ख़तम हो जाएगा|

दूसरे नंबर पर सिगरेट-बीड़ी बाज़, ये बेचारे तो वैसे ही हालात के मारे हैं, जैसे बजट सत्र में नौकरी वाला इनकम टैक्स में छूट की उम्मीद करता है वैसे ही सिगरेट बीड़ी पीने वाले तंबाखू पर लगने वाले टैक्स की| दो – ढाई रुपये की बिकने वाली सिगरेट 15 रुपये की हो गयी, सरकार ने तो मानों सारी भरपाई सिगरेट- बीड़ी वालों से करने की सोच रखी हो| लेकिन नशेबाजों की दृढ़ता देखिये दो रोटी कम खा लेगा पर मजाल है जो सिगरेट का धुआं कम हो जाए| अब सिगरेट मिलना कोई बड़ी बात तो है नहीं, हर परचून वाला रखता है, सो शुरूआती मारा मारी के बाद सब कुछ सामान्य सा हो गया, लॉकडाउन से पहले या लॉकडाउन के बाद सिगरेट फूंकने वाले वैसे ही दिखे, बस वर्क फ्रॉम होम के चक्कर में लौंग, इलाइची और सौंफ का खर्चा बढ़ गया|
तकलीफ आई तो उन बेचारों को, जिनका नशा ही दूसरों की जेबों पर निर्भर करता था, अगला कब अपने वर्क स्टेशन से उठ कर सिगरेट ब्रेक को जा रहा है, बेचारे सारा हिसाब रखते थे| ऐसा नहीं था की अगले का ख्याल था, बस कॉन्फिडेंस रहता कि, साथ में हो लिए तो बतियाते हुए तीन चार कश तो खींच ही लेंगे और दिन अच्छा हुआ तो पूरी सिगरेट| इस महामारी के लॉकडाउन में बेचारे लाचार से हो गए, उम्मीद है इक्कीस दिनों वाला व्रत इनके फेफड़ों और इनके दोस्तों के जेबों के लिए वरदान साबित हुआ होगा|

तीसरे और सबसे अहम् हमारे “रंगरेज़”, जी मैं कपड़े रंगने वालों की नहीं बल्कि मानव रुपी चलती फिरती पिचकारियों की बात कर रहा हूँ| पान मसाला, गुटखा, पुड़िया, मावा, सुरती, खैनी…..नाम अनेक पर काम एक, मुहं में भरो और जहां जगह मिले उगल दो| बस की खिड़की, कारों के दरवाज़े, सड़कें, सरकारी दफ्तर या सरकारी कालेज जहाँ भी देखो एबस्ट्रैक्ट आर्ट का नमूना पेश करते मिल जाएंगे| सारी गलती इन विज्ञापन बनाने वालों की है, पान मसाला खिला कर इतना सक्सेसफुल बना देते हैं कि आगे पीछे कुछ दिखता ही नहीं है| बस “मेरा मुहं –मेरा ब्रश” और यह सारा जहान कैनवस, बस लगे रहो अमूर्त कला बनाने में| लगता है इस लॉकडाउन की सबसे ज्यादा मार कोई झेल रहा है तो यही कला प्रेमी|
कितने तो सरकारी बाबुओं के पैसे सेंक्सन होना बंद हो गए, कहाँ हर छह महीने में तीन- तीन फिट दीवार रंगवाने का पैसा एडवांस उठाया, फिर सरकारी रंगरेजों को खुली छूट दे दी, दो- तीन दिन में तो पूरा एरिया कवर, वो भी टेक्सचर फिनिश के साथ| लॉकडाउन में न आफिस खुले, न रंगरेज दिखे| सरकार को तो जैसे कला की कदर ही न हो, एक तो थूकने पर पाबंदी ऊपर से लॉकडाउन, हालत अमेरिका गए गुजराती सी हो गयी, पूरी जिन्दगी मावा खाया फिर ऐसे देश पहुच गए जहाँ थूकना मन है|
इतनी ज्यादती क्या काम थी जो मास्क भी पहनवा दिया, ऊपर से उलंघन पर मोटा फ़ाईन| अच्छा लगेगा क्या, इधर नवाब साहब ने थूकने को ज़रा सा मास्क सरकाया, उधर रसीद कट गयी| माना की ऊँचें लोग होंगे और पसंद भी ऊँची रखते होंगे, पर हर थूक पर पांच-सौ, हजार का चूना कुछ ज्यादा ही ज्यादती है|
खैर ये हमारे देश के नशेबाज़ हैं, विदेशी शोध न इन पर पहले काम कर पाए थे न अब करते दिख रहे हैं| मोहलत इक्कीस दिन की हो या नब्बे दिन की, सब भ्रांतियां हैं, द्रढ़संकल्प हो तो आज के आज सुधर जाएँ, नहीं तो एक जीवन भी कम पड़ जाएगा|
2 replies on “21 डेज टु क्विट अ हैबिट/ 21 days to quit a habit”
Great Swapnil, good way to pen down thoughts and briefing about the facts of life.
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Thank you . Keep blessing, many more to come.
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